साल 1977, नए साल की पूर्व संध्या। तेहरान में एक भव्य सरकारी भोज चल रहा था। इस महफ़िल में अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने ईरान के शासक, शाह रज़ा पहलवी की शान में कसीदे पढ़ते हुए उन्हें ‘स्थायित्व का द्वीप’ (Island of Stability) कह डाला। ऊपर से देखने पर यह एक शक्तिशाली दोस्त की दूसरे दोस्त के लिए की गई तारीफ लग रही थी, लेकिन ईरान की ज़मीनी हकीकत से वाकिफ लोगों के लिए यह एक कड़वा मज़ाक था।
जिस शाह की बुद्धिमत्ता और विवेक के गुणगान किए जा रहे थे, उन्हीं की हुकूमत पर अपने राजनीतिक विरोधियों को बेरहमी से कुचलने के आरोप थे। यह कहानी है उस ‘स्थायित्व के द्वीप’ के भीतर सुलग रही विद्रोह की आग की, जिसने सिर्फ दो साल बाद सब कुछ जलाकर राख कर दिया। यह कहानी है 1979 की उस ईरानी क्रांति की, जिसने न केवल ईरान का भविष्य हमेशा के लिए बदल दिया, बल्कि मध्य-पूर्व और पूरी दुनिया की राजनीति पर एक अमिट छाप छोड़ी।
CIA की मदद से गद्दी पर बैठे शाह पहलवी
ईरान के शाह रज़ा पहलवी की सत्ता की कहानी किसी फिल्मी पटकथा से कम नहीं है। उनकी गद्दी असल में तेहरान में बैठे सीआईए के एक एजेंट, कर्मिट रूजवेल्ट की मेहरबानी थी। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि शाह के पिता ने 1925 में एक तख्तापलट के बाद सत्ता पर कब्जा किया था। लेकिन जब दूसरे विश्व युद्ध के दौरान उनका झुकाव नाज़ी जर्मनी की तरफ़ साफ दिखने लगा, तो ब्रिटेन और सोवियत संघ ने मिलकर उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया।
दूसरे विश्व युद्ध के समय, मित्र देशों की सेनाओं का ईरान पर नियंत्रण था। इसका मुख्य कारण ईरान की बेशकीमती तेल संपदा थी, जिसका इस्तेमाल हिटलर की सेनाओं के खिलाफ जंग में किया जा रहा था। दुनिया को यह दिखाने के लिए कि ईरान एक स्वतंत्र राष्ट्र है, उन्होंने शाह के युवा बेटे रज़ा पहलवी को गद्दी सौंप दी।
स्विट्जरलैंड में पढ़े-लिखे पहलवी तब अपनी जिंदगी एक अमीर प्ले-बॉय की तरह गुजार रहे थे। उन्हें सत्ता सौंपने के पीछे पश्चिमी देशों का एक ही मकसद था – ईरान के तेल पर अपना नियंत्रण बनाए रखना।
जब एक राष्ट्रवादी नायक ने तेल का राष्ट्रीयकरण किया
नाममात्र के शासक होते हुए भी, युवा शाह ने एक प्रस्ताव रखा। उन्होंने कहा कि तेल से होने वाली कमाई का आधा हिस्सा ईरान को मिलना चाहिए ताकि देश में खुशहाली आए और किसी भी तरह के राजनीतिक आंदोलन की गुंजाइश खत्म हो जाए। लेकिन उस समय की शक्तिशाली एंग्लो-ईरानी तेल कंपनी ने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया।
इस अपमान ने ईरान की जनता के गुस्से को भड़का दिया और वे एक करिश्माई नेता मोहम्मद मोसद्देक के पीछे एकजुट हो गए। मोसद्देक उस शाही परिवार से ताल्लुक रखते थे, जिसने पहलवी खानदान के आने से पहले सदियों तक ईरान पर राज किया था।
सत्ता में आते ही मोसद्देक ने वो कर दिखाया जिसकी हिम्मत शाह कभी नहीं कर पाए। उन्होंने पूरे तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इस साहसिक कदम ने उन्हें रातों-रात ईरान का हीरो बना दिया। टाइम मैगजीन ने उन्हें ‘मैन ऑफ द ईयर’ घोषित किया। संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण में उन्होंने गरजते हुए कहा, “ईरान के तेल संसाधन, उसकी मिट्टी, उसकी नदियों और उसके पहाड़ों की तरह ईरान के लोगों की संपत्ति हैं।”
अमेरिका और ब्रिटेन का पलटवार: मोसद्देक का तख्तापलट
मोसद्देक के इस कदम से एंग्लो-ईरानी तेल कंपनी को भारी वित्तीय नुकसान हो रहा था। वहीं, अमेरिका को यह डर सताने लगा कि मोसद्देक का समाजवादी झुकाव उन्हें सोवियत संघ के खेमे में धकेल सकता है। शीत युद्ध के उस दौर में यह अमेरिका के लिए एक बड़ा खतरा था।
तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर और ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने मिलकर मोसद्देक के खिलाफ एक गुप्त साजिश रची। सीआईए एजेंट कर्मिट रूजवेल्ट ने ईरानी प्रेस में मोसद्देक के खिलाफ झूठी खबरें छपवाईं और सड़कों पर भाड़े के प्रदर्शन आयोजित कराए। जल्द ही, सेना के कुछ अधिकारियों ने देशद्रोह के झूठे आरोप लगाकर प्रधानमंत्री मोसद्देक को गिरफ्तार कर लिया। तीन साल जेल में काटने के बाद, उन्हें उनके घर में ही नजरबंद कर दिया गया, जहाँ 1967 में उनकी गुमनाम मौत हो गई।
जिस वक्त यह सैन्य विद्रोह चल रहा था, शाह अपनी पत्नी के साथ डरकर रोम भाग गए थे। जब मोसद्देक को हटाकर हालात ‘सामान्य’ कर दिए गए, तो शाह विजेता की तरह तेहरान वापस लौटे और दोबारा राजगद्दी संभाली। अमेरिका ने यह कहकर अपने कदम को सही ठहराया कि कम्युनिस्टों को रोकने और तेल की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए यह जरूरी था।
शाह का ‘आधुनिकीकरण’ और बढ़ती खाई
सत्ता में वापसी के बाद शाह ने अपने देशवासियों से वादा किया कि वह ईरान को वित्तीय और सांस्कृतिक रूप से पश्चिमी देशों के बराबर लाकर खड़ा कर देंगे। उन्होंने अमेरिकी मदद से ईरान का तेजी से आधुनिकीकरण शुरू किया।
शाह के शासन में ईरान में समृद्धि आई, महिलाओं को अधिकार मिले और देश को पारंपरिक इस्लामी शिक्षा से दूर ले जाने की कोशिश की गई। उन्होंने एक ऐसी ताकतवर सेना बनाई जो उस समय इजराइल को भी टक्कर दे सकती थी। लेकिन इस चमक-दमक के पीछे एक स्याह सच छिपा था।
शाह एक अहंकारी सम्राट बन चुके थे, जो अपने विरोधियों को कुचलने में गर्व महसूस करते थे। उन्होंने खरबों डॉलर ऐसी आर्थिक योजनाओं में बर्बाद कर दिए जिनका कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। इसका परिणाम यह हुआ कि ईरान की ज्यादातर आबादी गरीब ही रही। 1970 के दशक तक, देश के 40% लोग कुपोषण का शिकार थे। तेल से मिलने वाला पैसा शहरों में रहने वाले पश्चिमी रंग में रंगे एक छोटे से तबके तक ही सीमित रहा, जबकि अमीर और गरीब के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती गई।
जब ‘अमेरिका की कठपुतली’ के खिलाफ उठी आवाज़
अपने शासन के 20 साल पूरे करते-करते शाह अपने ही लोगों के बीच अलोकप्रिय हो गए। उन्हें अब ‘अमेरिका की कठपुतली’ कहा जाने लगा था। लोगों का गुस्सा धीरे-धीरे सुलग रहा था। 1970 के दशक के मध्य में शाह के खिलाफ सड़क पर प्रदर्शनों का जो सिलसिला शुरू हुआ, वो फिर कभी नहीं रुका।
1978 आते-आते शाह की सत्ता की नींव बुरी तरह हिल चुकी थी। हालांकि बाहरी दुनिया को अब भी लग रहा था कि शाह इस संकट से उबर जाएंगे, लेकिन वे ईरान के समाज में हो रहे एक बड़े बदलाव को समझने में नाकाम रहे।
इस्लामी क्रांति और खुमैनी का उदय
ईरान के भीतर पारंपरिक इस्लाम फिर से सिर उठा रहा था। मौलवी और धार्मिक नेता शाह के पश्चिमीकरण और धर्मनिरपेक्ष नीतियों के खिलाफ बगावत की तैयारी कर रहे थे। कॉलेज के छात्रों से लेकर नौकरशाही तक, हर जगह बदलाव की मांग जोर पकड़ रही थी। इस असंतोष का चेहरा बने एक निर्वासित धार्मिक नेता – आयतुल्लाह रूहोल्लाह खुमैनी।
16 जनवरी, 1979 को जब शाह हमेशा के लिए ईरान छोड़कर मिस्र चले गए, तो किसी ने उनके लिए आंसू नहीं बहाए। उनके जाते ही, फ्रांस में 16 साल से निर्वासित जीवन जी रहे आयतुल्लाह खुमैनी ने वतन वापसी का ऐलान कर दिया।
1 फरवरी, 1979 को एक चार्टर्ड विमान से जब खुमैनी तेहरान हवाई अड्डे पर उतरे, तो लाखों की भीड़ उनके स्वागत के लिए उमड़ पड़ी। यह एक नए युग की शुरुआत थी। ईरान अब राजशाही से एक इस्लामी गणराज्य बन चुका था।
‘बड़ा शैतान’ अमेरिका और नई विदेश नीति
खुमैनी को देश का ‘सुप्रीम लीडर’ बनाया गया और उन्होंने इस्लामी शरिया कानूनों के अनुसार ईरान पर शासन करना शुरू कर दिया। उनकी नजर में अमेरिका ‘बड़ा शैतान’ था और इजराइल फिलिस्तीनी भूमि पर एक अवैध कब्जाधारी। अमेरिका और इजराइल से दुश्मनी, ईरान की नई विदेश नीति का सबसे अहम हिस्सा बन गई।
खुमैनी के सत्ता संभालने के कुछ ही महीनों बाद, उनके कट्टर समर्थक छात्रों ने तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर धावा बोल दिया और 66 अमेरिकियों को बंधक बना लिया। उनकी मांग थी कि अमेरिका में कैंसर का इलाज करा रहे शाह को वापस ईरान भेजा जाए ताकि उन्हें उनके ‘गुनाहों’ की सजा दी जा सके। इस बंधक संकट ने दोनों देशों के बीच दशकों तक चलने वाली दुश्मनी की नींव रखी।
युद्ध, फतवे और मोहभंग का दौर
ईरानी क्रांति को अभी एक साल भी नहीं हुआ था कि पड़ोसी देश इराक ने, सद्दाम हुसैन के नेतृत्व में, ईरान पर हमला कर दिया। यह विनाशकारी युद्ध लगभग नौ सालों तक चला और इसने ईरान की अर्थव्यवस्था को तोड़कर रख दिया।
जल्द ही, लोगों का खुमैनी के शासन से भी मोहभंग होने लगा। एक लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ता ने कहा था, “हमने सोचा था कि खुमैनी ईरान में लोकतंत्र लाएंगे, लेकिन अब हमें एहसास हुआ है कि हमने एक तानाशाह को हटाकर बस दूसरा तानाशाह ला खड़ा किया है।”
1989 में, खुमैनी ने भारतीय मूल के लेखक सलमान रुश्दी की किताब ‘द सैटेनिक वर्सेज’ के खिलाफ मौत का फतवा जारी कर पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया। इस फतवे ने ईरान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और भी अलग-थलग कर दिया।
खुमैनी के उत्तराधिकारी: अली खामेनेई
जैसे-जैसे खुमैनी का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा, उनके उत्तराधिकारी की तलाश शुरू हुई। पहले उनकी पसंद आयतुल्लाह मोंतज़री थे, लेकिन बाद में वैचारिक मतभेदों के चलते उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति अली खामेनेई को अपना वारिस चुना। खामेनेई धार्मिक पदानुक्रम में काफी जूनियर थे, लेकिन खुमैनी ने संविधान में संशोधन कराकर उनके सुप्रीम लीडर बनने का रास्ता साफ कर दिया।
खुमैनी की मृत्यु के बाद अली खामेनेई ने ईरान की बागडोर संभाली। उन्होंने आत्मनिर्भरता, मजबूत रक्षा और चीन-रूस से करीबी को अपनी नीति का आधार बनाया।
बदलाव की एक अधूरी उम्मीद
हालांकि खामेनेई अमेरिका विरोधी नीति पर ही चले, लेकिन 1997 में मोहम्मद खातमी के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद बदलाव की एक हवा चली। खातमी ने सऊदी अरब जैसे खाड़ी देशों से संबंध सुधारे और सलमान रुश्दी के खिलाफ जारी फतवे से भी सरकार को अलग कर लिया। 11 सितंबर 2001 के हमलों के बाद, ईरान मध्य-पूर्व का अकेला ऐसा देश था जहाँ लोगों ने मारे गए अमेरिकियों के लिए मोमबत्ती जलाकर जुलूस निकाला था।
लेकिन यह दौर ज्यादा लंबा नहीं चला। 2005 में कट्टरपंथी महमूद अहमदीनेजाद के सत्ता में आने के बाद ईरान अपनी पुरानी नीतियों पर लौट गया।
आज का ईरान: चुनौतियाँ और भविष्य का सवाल
आज भी ईरान के सुप्रीम लीडर अली खामेनेई ही हैं। उनके पास असीमित संवैधानिक और धार्मिक शक्तियाँ हैं। उन्होंने इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कोर (IRGC) जैसी संस्थाओं को और मजबूत किया है। देश में बहुत से लोग सरकार से असंतुष्ट हैं, लेकिन उनके पास कोई संगठित विपक्ष या राष्ट्रव्यापी नेता नहीं है।
हाल के दिनों में, ईरान के पूर्व शाह के बेटे रज़ा पहलवी कुछ लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। वे अमेरिका में निर्वासित जीवन जी रहे हैं और ईरान के लोगों से मौजूदा शासन को उखाड़ फेंकने की अपील करते हैं। लेकिन अमेरिका और इजराइल से उनकी नजदीकी के कारण ईरान में उन्हें कितनी गंभीरता से लिया जाएगा, यह एक बड़ा सवाल है। अगर वह कभी विदेशी मदद से सत्ता में लौटते भी हैं, तो उन्हें भी उसी वैधता के संकट का सामना करना पड़ेगा, जिसका सामना कभी उनके पिता ने किया था।
इस तरह, ईरानी क्रांति की विरासत आज भी ईरान की सियासत और समाज को गहराई से प्रभावित कर रही है। यह एक ऐसी क्रांति थी जिसने एक ‘स्थायित्व के द्वीप’ को हमेशा के लिए एक ऐसे ज्वालामुखी में बदल दिया, जिसकी गूंज आज भी पूरी दुनिया में सुनाई देती है।