एक तरफ बिहार में विधानसभा चुनाव की आहट है, तो दूसरी तरफ मतदाताओं की सूची को लेकर एक ऐसा संग्राम छिड़ गया है जो अब देश की सर्वोच्च अदालत की दहलीज तक पहुंच चुका है। गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में बिहार वोटर लिस्ट मामला एक हाई-वोल्टेज ड्रामे का गवाह बना, जहाँ देश के सबसे बड़े वकीलों ने आम आदमी के सबसे बड़े अधिकार, ‘मताधिकार’, को लेकर तीखी जिरह की। चुनाव आयोग द्वारा चलाई जा रही ‘स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न’ प्रक्रिया पर रोक लगाने की मांग को लेकर दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने भले ही कोई अंतरिम आदेश देने से इनकार कर दिया हो, लेकिन जजों की टिप्पणियों ने इस पूरी प्रक्रिया पर कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
यह मामला सिर्फ एक प्रशासनिक प्रक्रिया का नहीं, बल्कि लाखों लोगों के भविष्य, लोकतंत्र में सबकी बराबरी और एक संवैधानिक संस्था के अधिकारों की सीमा का है। क्या चुनाव आयोग के पास नागरिकता साबित कराने जैसी प्रक्रिया चलाने का अधिकार है? चुनाव से ठीक पहले इस तरह की कवायद कितनी व्यावहारिक है? और क्यों आधार कार्ड जैसे सबसे जरूरी दस्तावेज को ही इस प्रक्रिया से बाहर रखा गया? आइए, इस पूरे मामले की तह तक चलते हैं और जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में पक्ष और विपक्ष ने क्या-क्या दलीलें रखीं।
क्या है ‘स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न’ और क्यों है विवादों में?
इस पूरे विवाद की जड़ चुनाव आयोग के 24 जून, 2025 के एक प्रेस नोट में छिपी है। आयोग ने कहा कि बिहार में मतदाताओं की सूची का आखिरी बार गहन संशोधन (Intensive Revision) 2003 में हुआ था। तब से लेकर अब तक, कई लोगों की मृत्यु, प्रवास और अवैध आप्रवास के कारण सूची में कई गड़बड़ियां आ गई हैं, जिन्हें दुरुस्त करने के लिए एक ‘स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न’ की जरूरत है।
प्रक्रिया की शर्तें, जो बनीं विवाद का कारण:
- 2003 की लिस्ट का आधार: जिन लोगों का नाम 2003 की वोटर लिस्ट में है, उन्हें सिर्फ एक फॉर्म भरना होगा।
- नए वोटरों के लिए दस्तावेजी सबूत: जिनका नाम लिस्ट में नहीं है, उन्हें अपनी नागरिकता और उम्र साबित करने के लिए जन्म के साल के हिसाब से अलग-अलग दस्तावेज देने होंगे।
- 1 जुलाई, 1987 से पहले जन्मे: जन्म स्थान या तिथि का प्रमाण।
- 1987 से 2004 के बीच जन्मे: अपने साथ माता-पिता में से किसी एक के दस्तावेज।
- 2004 के बाद जन्मे: अपने और अपने माता-पिता, दोनों के दस्तावेज।
- समय की पाबंदी: इस पूरी प्रक्रिया के लिए सिर्फ एक महीने का वक्त दिया गया है। 26 जुलाई तक फॉर्म भरने के बाद 30 सितंबर को फाइनल लिस्ट जारी कर दी जाएगी, जबकि नवंबर में ही चुनाव होने हैं।
विपक्षी दलों और सिविल सोसाइटी ने इसी कम समय और जटिल प्रक्रिया पर आपत्ति जताते हुए इसे “बैकडोर से एनआरसी लागू करने की कोशिश” करार दिया है।
सुप्रीम कोर्ट के कटघरे में चुनाव आयोग: जजों ने पूछे ये तीखे सवाल

सुनवाई के दौरान जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की बेंच ने चुनाव आयोग से इस प्रक्रिया की व्यावहारिकता और टाइमिंग पर कई कड़े सवाल पूछे।
1. व्यावहारिकता पर सबसे बड़ा सवाल
जस्टिस धूलिया ने चुनाव आयोग के वकील से सीधा सवाल किया, “एक ऐसे देश में जहां दस्तावेजों की कमी है, वहां लोग दस्तावेज कहां से लाएंगे? अगर आप मुझसे दस्तावेज मांगेंगे तो मैं भी नहीं दे पाऊंगा। हम आपसे इसकी व्यावहारिकता पूछ रहे हैं, खासकर उस टाइमलाइन के बारे में जो आपने तय की है।” यह टिप्पणी इस पूरी प्रक्रिया की जमीनी हकीकत पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाती है।
2. टाइमिंग पर गहरी चिंता
बेंच ने इस बात पर भी हैरानी जताई कि चुनाव से कुछ ही महीने पहले इतने बड़े पैमाने पर यह प्रक्रिया क्यों चलाई जा रही है। जस्टिस बागची ने सुझाव दिया, “आप इस प्रक्रिया को चुनाव की तारीख से अलग भी कर सकते हैं। आप तय करें कि प्रस्तावित चुनाव से छह महीने पहले यह कर लें।” इस पर याचिकाकर्ताओं की ओर से अभिषेक मनु सिंघवी ने तुरंत ध्यान दिलाया कि 2003 में यही रिवीज़न विधानसभा चुनाव से दो साल पहले और लोकसभा चुनाव से एक साल पहले किया गया था।
3. आधार कार्ड क्यों नहीं? कोर्ट का अहम सवाल
सुनवाई का सबसे बड़ा मुद्दा यह था कि पहचान के 11 दस्तावेजों की सूची में पासपोर्ट और जाति प्रमाण पत्र तो शामिल हैं, लेकिन आधार कार्ड और वोटर आईडी कार्ड (EPIC) जैसे सबसे बुनियादी दस्तावेजों को क्यों बाहर रखा गया?
जब चुनाव आयोग के वकील राकेश द्विवेदी ने दलील दी कि “आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं है,” तो बेंच ने उन्हें तुरंत आईना दिखाया। जस्टिस धूलिया ने पूछा, “अगर मुझे जाति प्रमाण पत्र चाहिए तो मैं आधार दिखाता हूं। लेकिन जाति प्रमाण पत्र तो उन 11 दस्तावेजों में शामिल है।” कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि “नागरिकता तय करना चुनाव आयोग का काम नहीं, यह गृह मंत्रालय का काम है।”
याचिकाकर्ताओं की दलीलें: ‘यह मताधिकार पर हमला है’
देश के शीर्ष वकीलों ने इस प्रक्रिया की कानूनी वैधता पर गंभीर सवाल उठाए और इसे लोकतंत्र के लिए खतरा बताया।
- कपिल सिब्बल: उन्होंने कहा कि इस कदम से “बहुत बड़ी संख्या में मतदाताओं का नाम वोटर लिस्ट से हट सकता है।” उन्होंने तर्क दिया कि चुनाव आयोग वोटरों से नागरिकता साबित करने के लिए कह रहा है, जो उसके अधिकार क्षेत्र से पूरी तरह बाहर है। उन्होंने कहा, “वोटर बनने के लिए सिर्फ तीन शर्तें हैं – आप भारतीय नागरिक हों, मानसिक रूप से स्वस्थ हों, और किसी कानून के तहत वोट देने से रोके न गए हों।”
- अभिषेक मनु सिंघवी: उन्होंने कहा कि यह फैसला चुनावों में “सभी को बराबरी का मौका देने के सिद्धांत” के खिलाफ है। एक बार किसी का नाम वोटर लिस्ट में आ जाए, तो यह माना जाता है कि उसने जरूरी दस्तावेज दिए होंगे। उसे हटाने के लिए एक तय प्रक्रिया होती है, न कि सभी से दोबारा सबूत मांगा जाता है।
- वृंदा ग्रोवर: उन्होंने हाशिए पर मौजूद समुदायों की चिंता जताते हुए कहा कि इसका सबसे ज्यादा असर प्रवासी मजदूरों, ट्रांसजेंडरों और अनाथों पर पड़ेगा, जिनके लिए दस्तावेज जुटाना सबसे मुश्किल होता है।
चुनाव आयोग का पलटवार: ‘यह हमारा संवैधानिक अधिकार है’
चुनाव आयोग की तरफ से पेश हुए वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी ने इस प्रक्रिया का पुरजोर बचाव किया।
- संवैधानिक जिम्मेदारी: उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और वोटर लिस्ट तैयार करना तथा उसे दुरुस्त करना उसकी जिम्मेदारी है। “अगर चुनाव आयोग के पास वोटर लिस्ट में सुधार करने का अधिकार नहीं होगा, तो हमें कोई दूसरा रास्ता ढूंढ़ना पड़ेगा।”
- व्यावहारिकता का भरोसा: उन्होंने कोर्ट को भरोसा दिलाया कि इस प्रक्रिया की पल-पल की निगरानी की जा रही है और करीब तीन लाख लोग फॉर्म बांटने का काम कर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि 2003 की लिस्ट को आधार मानने से ज्यादातर लोगों को कोई दस्तावेज देने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
- बात रखने का मिलेगा मौका: उन्होंने आश्वासन दिया कि जिन लोगों का नाम लिस्ट से बाहर होगा, उन्हें अपनी बात रखने और शिकायत दर्ज कराने का पूरा मौका दिया जाएगा।
आगे क्या होगा? गेंद चुनाव आयोग के पाले में
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की अगली सुनवाई के लिए 28 जुलाई, 2025 की तारीख तय की है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस मामले में पूरी सुनवाई की जरूरत है। हालांकि, कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए गेंद चुनाव आयोग के पाले में डाल दी है।
कोर्ट ने कहा, “हमारी पहली नजर में राय है कि न्यायहित में यह उचित होगा कि चुनाव आयोग इन तीन दस्तावेजों को भी माने – आधार कार्ड, खुद आयोग की तरफ से जारी ईपीआईसी कार्ड (वोटर आईडी) और राशन कार्ड। इससे याचिकाओं में उठे ज्यादातर मुद्दे अपने आप सुलझ जाएंगे।”
कोर्ट ने यह फैसला लेने का अधिकार चुनाव आयोग को ही दिया है, लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि अगर वह इन दस्तावेजों को नहीं मानता है, तो उसे इसका कारण बताना होगा। अब सभी की निगाहें चुनाव आयोग पर टिकी हैं कि वह सुप्रीम कोर्ट की इस अहम सलाह पर क्या फैसला लेता है। यह फैसला ही तय करेगा कि बिहार में लाखों लोगों का मताधिकार सुरक्षित रहता है या वे एक जटिल और थकाऊ प्रक्रिया में उलझकर रह जाते हैं।