बेंगलुरु वीडियो मामला

सड़कों पर चलती महिलाओं का चोरी-छिपे वीडियो… इंस्टाग्राम पर ‘तमाशा’! बेंगलुरु में कौन कर रहा है यह घिनौना काम?

बेंगलुरु की चमक-दमक वाली सड़कें, व्यस्त मॉल और मेट्रो स्टेशन… ये वो जगहें हैं जहाँ हर रोज हजारों महिलाएं अपनी जिंदगी जीने, काम करने और अपने सपनों को पूरा करने के लिए निकलती हैं। लेकिन क्या उन्हें पता है कि उनकी पीठ पीछे कोई कैमरा उनकी हर अदा को कैद कर रहा है? एक ऐसा कैमरा, जो उनकी सहमति के बिना, उनके सबसे निजी पलों को एक पब्लिक तमाशे में बदलने के लिए तैयार है। हाल ही में सामने आया बेंगलुरु वीडियो मामला इसी खौफनाक हकीकत को बयां करता है।

कर्नाटक पुलिस ने गुरदीप सिंह नाम के एक युवक को बेंगलुरु की सड़कों पर महिलाओं के वीडियो चोरी-छिपे बनाकर उन्हें सोशल मीडिया पर पोस्ट करने के आरोप में गिरफ्तार किया है। यह कोई अकेली घटना नहीं है। पिछले कुछ ही हफ्तों में यह इस तरह का दूसरा बड़ा मामला है, जिसने टेक सिटी में महिलाओं की सुरक्षा और निजता को लेकर एक गंभीर बहस छेड़ दी है। यह सिर्फ एक अपराध की कहानी नहीं है, बल्कि यह एक बीमार और विकृत मानसिकता का प्रतिबिंब है, जो सोशल मीडिया के लाइक्स और फॉलोअर्स की आड़ में महिलाओं को एक वस्तु के रूप में देखती है।

क्या है यह पूरा मामला और कैसे हुआ इसका खुलासा?

यह मामला तब सामने आया जब पुलिस ने जून में सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे कुछ वीडियो और तस्वीरों पर खुद संज्ञान लिया। एक Instagram अकाउंट, जिसका नाम कथित तौर पर ‘@IndianWalk’ था, पर बेंगलुरु की व्यस्त सड़कों पर चलती महिलाओं के कई वीडियो पोस्ट किए जा रहे थे। इस अकाउंट के 11 हजार से ज्यादा फॉलोअर्स थे और यह ‘स्ट्रीट फैशन’ को कैप्चर करने का दावा करता था। लेकिन हकीकत कुछ और ही थी।

एक पीड़िता की हिम्मत ने खोली पोल

इस मामले ने तब और तूल पकड़ा जब एक युवती ने पुलिस को टैग करते हुए एक पोस्ट किया। उसने बताया कि उसका वीडियो बिना उसकी सहमति के “बहुत ही अनुचित तरीके से शूट किया गया था”। इस वीडियो के वायरल होते ही, उसे “अश्लील संदेश” मिलने लगे। एक पल में उसकी निजी जिंदगी एक पब्लिक तमाशा बन गई।

उसने अपनी आपबीती में बताया, “मैंने कई अकाउंट्स के जरिए इसकी रिपोर्ट करने की कोशिश की, लेकिन जवाब मिला कि वह पोस्ट कम्युनिटी गाइडलाइन्स के अनुरूप है। मुझे तो यह भी नहीं पता कि वे गाइडलाइन्स क्या हैं।” उसकी परेशानी तब और बढ़ गई जब उसने देखा कि उसके वीडियो पर हर मिनट व्यूज बढ़ रहे थे और लोग इंटरनेट पर उसे ढूंढ रहे थे। उसने एक अहम सवाल उठाया, “उस अकाउंट के 10 हजार फॉलोअर्स हैं। मेरे जैसी और भी महिलाएं हैं, जिन्हें यह तक मालूम नहीं होगा कि उनके छिपकर वीडियो बनाए गए हैं। सोशल मीडिया पर यह सब सामान्य बात नहीं होनी चाहिए। हमें आवाज उठानी चाहिए।”

यह पहली बार नहीं: ‘मेट्रो चिक्स’ की घिनौनी करतूत

यह बेंगलुरु वीडियो मामला कोई अकेला मामला नहीं है। ठीक छह हफ्ते पहले, पुलिस ने दिगंत नाम के एक युवक को गिरफ्तार किया था। दिगंत, जो एक निजी कंपनी में अकाउंटेंट था, बेंगलुरु मेट्रो में सफर कर रही युवतियों की तस्वीरें और वीडियो बनाकर उन्हें ‘@MetroChicks’ नाम के एक सोशल मीडिया पेज पर पोस्ट करता था।

इन वीडियो का शीर्षक था: “नम्मा (हमारी) मेट्रो में सुंदर लड़कियां ढूंढना।”

दोनों मामलों में वीडियो बनाने का तरीका और मानसिकता एक जैसी थी। बेंगलुरु के पुलिस उपायुक्त (दक्षिण) लोकेश जगलासर ने बताया, “वीडियो स्लो मोशन में फिल्माए गए थे। ये वीडियो शाम को सड़क पर चल रही उन महिलाओं के थे, जो पार्टी में जाने वाले ड्रेस पहने हुए थीं। दोनों ही मामलों में बनाए गए वीडियो में कोई अंतर नहीं था।”

दिगंत और गुरदीप सिंह, दोनों पर भारतीय न्याय संहिता की धारा 77 और 78 (पीछा करना) और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 67 (इलेक्ट्रॉनिक रूप में अश्लील सामग्री प्रकाशित या प्रसारित करना) के तहत मामला दर्ज किया गया है।

बहस का केंद्र: कपड़ों पर सवाल या विकृत मानसिकता?

जब भी महिलाओं के खिलाफ इस तरह के अपराध होते हैं, তো समाज का एक वर्ग अक्सर सवाल उनकी नैतिकता या उनके कपड़ों पर उठाने लगता है। लेकिन महिला कार्यकर्ता और विशेषज्ञ इस तर्क को सिरे से खारिज करते हैं।

ग्लोबल कंसर्न्स इंडिया की बृंदा अडिगे इन दोनों मामलों को “पितृसत्तात्मक स्त्री-विरोधी सोच वाली एक बीमार, विकृत मानसिकता” की अभिव्यक्ति बताती हैं।

‘इसका कपड़ों से कोई लेना-देना नहीं है’

बृंदा अडिगे कहती हैं, “यह कहना बिल्कुल गलत है कि ये वीडियो महिलाओं के पहनावे की वजह से बनाए जाते हैं, क्योंकि अगर यह सच होता तो बच्चों के साथ दुर्व्यवहार क्यों होता या महिलाओं के साथ यौन दुर्व्यवहार क्यों होता?”

उनका कहना है कि वीडियो सिर्फ कम कपड़े पहने महिलाओं के ही नहीं बनाए जाते, “पूरे कपड़े पहने महिलाओं को भी नहीं बख्शा जाता। यहां तक कि बुर्का पहनने वालों को भी नहीं छोड़ा जाता।” यह तर्क इस पूरी बहस को एक सही दिशा देता है और दिखाता है कि समस्या महिलाओं के कपड़ों में नहीं, बल्कि अपराधी की नजरों और उसकी मानसिकता में है।

क्या यह पैसे कमाने का जरिया है?

बृंदा अडिगे एक और गंभीर संभावना की ओर इशारा करती हैं। गुरदीप सिंह के मामले पर बात करते हुए उन्होंने कहा, “मुझे लगता है कि इसका कपड़ों से उतना लेना-देना नहीं है, जितना किसी बेरोजगार के पैसे कमाने की कोशिश से है। क्योंकि हम जानते हैं कि ये तस्वीरें डार्क वेब पर महंगी बिकती हैं।”

हालांकि, पुलिस को अभी तक इस केस का डार्क वेब से कोई सीधा संबंध नहीं मिला है, लेकिन यह एक ऐसा एंगल है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह दिखाता है कि कैसे महिलाओं की निजता का सौदा किया जा रहा है।

क्या हमारा कानून काफी है? विशेषज्ञों की राय

इस तरह के अपराधों से निपटने के लिए हमारे पास साइबर कानून तो हैं, लेकिन क्या वे काफी हैं? विशेषज्ञ मानते हैं कि कानून में अभी भी कई खामियां हैं।

  • कमजोर सजा: बृंदा अडिगे कहती हैं कि मौजूदा साइबर अपराध कानून कड़े नहीं हैं, क्योंकि पहली बार अपराध करने पर सजा बहुत कम मिलती है। “पहली बार अपराध करने पर सिर्फ एक से तीन साल की सजा होती है। तो क्या हमें अपराधी को उचित सजा देने के लिए दूसरी बार अपराध करने तक इंतजार करना होगा?”
  • सिस्टम की उदासीनता: अल्टरनेटिव लॉ फोरम (ALF) की एडवोकेट पूर्णा रविशंकर कहती हैं, “समस्या सिस्टम में है, जो इस तरह की हिंसा को गंभीरता से नहीं लेता। व्यवस्था की उदासीनता ऐसे अपराधों को जारी रहने का रास्ता देती है।”
  • मानसिक पीड़ा का कोई कानून नहीं: एक अन्य युवा अधिवक्ता प्रज्वल आराध्या एक अहम मुद्दा उठाते हैं। वह कहते हैं, “हमारे यहां मानसिक उत्पीड़न (मेंटल ट्रॉमा) के लिए मुकदमा दायर करने की प्रथा नहीं है। लोग कहते हैं कि समय के साथ सब भूल जाएंगे, लेकिन किसी को यह एहसास नहीं है कि इंटरनेट कभी कुछ नहीं भूलता।”

यह सबसे कड़वी सच्चाई है। जिस महिला का वीडियो एक बार इंटरनेट पर चला गया, वह हमेशा के लिए वहां मौजूद रहता है। इस डिजिटल जख्म का कोई कानूनी मुआवजा नहीं है।

यह बेंगलुरु वीडियो मामला सिर्फ दो लोगों की गिरफ्तारी की खबर नहीं है। यह हमारे समाज के लिए एक अलार्म है। यह एक चेतावनी है कि सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की सुरक्षा और उनकी निजता कितनी नाजुक है। यह एक सवाल है कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अपनी जिम्मेदारी से कैसे बच सकते हैं? और सबसे बड़ा सवाल यह है कि एक समाज के रूप में हम इस विकृत मानसिकता से कब और कैसे लड़ेंगे?

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