यह सिर्फ एक आशंका नहीं, बल्कि एक गंभीर चेतावनी है, जो बिहार में चुनाव आयोग द्वारा शुरू की गई एक नई और व्यापक वोटर वेरिफिकेशन प्रक्रिया को लेकर दी जा रही है। इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारी के बीच, चुनाव आयोग ने ‘स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न’ (Special Intensive Revision – SIR) नाम से एक ऐसी कवायद शुरू की है, जिसने पूरे राज्य में एक नई बहस और डर को जन्म दे दिया है। इस प्रक्रिया को कुछ लोग ‘नोटबंदी’ की तर्ज पर बिहार में वोट बंदी कह रहे हैं, तो कुछ इसे असम के एनआरसी (NRC) जैसा बता रहे हैं।
इस नई प्रक्रिया के तहत, वोटरों को अपनी पात्रता साबित करने के लिए 11 निर्दिष्ट दस्तावेजों में से कोई एक प्रस्तुत करना होगा। लेकिन मामला यहीं खत्म नहीं होता। इसके बाद भी, बिहार के निवासियों को तीन अलग-अलग श्रेणियों में बांटा गया है, और हर श्रेणी के लिए भारतीय नागरिकता साबित करने की शर्तें और भी जटिल हैं। आखिर क्या है यह पूरी प्रक्रिया, क्यों आधार और वोटर आईडी जैसे कार्ड भी ‘बेकार’ हो गए हैं, और क्यों यह दावा किया जा रहा है कि यह पहली बार है जब वोटरों को अपनी ही भारतीय नागरिकता साबित करनी पड़ रही है? आइए, इस पूरे मुद्दे को गहराई से समझते हैं।
क्या है यह ‘स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न’?
चुनाव आयोग द्वारा शुरू की गई इस प्रक्रिया का मकसद वोटर लिस्ट को पूरी तरह से दुरुस्त करना है। इसके लिए, वोटरों को 11 दस्तावेजों की एक सूची में से कोई एक दस्तावेज दिखाना होगा। इन दस्तावेजों में सरकारी कर्मचारियों के पहचान पत्र, 1 जुलाई 1987 से पहले जारी कोई भी सरकारी दस्तावेज, जन्म प्रमाण पत्र, पासपोर्ट, और जाति प्रमाण पत्र जैसे डॉक्युमेंट्स शामिल हैं।
लेकिन असली पेंच इसके बाद शुरू होता है। सिर्फ एक दस्तावेज देना ही काफी नहीं है। आपको अपनी जन्मतिथि के आधार पर अपनी और अपने माता-पिता की नागरिकता भी साबित करनी होगी:
- 1 जुलाई, 1987 से पहले जन्मे: इन लोगों को अपनी जन्म तिथि और जन्म स्थान का प्रमाण देना होगा।
- 1 जुलाई, 1987 और 2 दिसंबर, 2004 के बीच जन्मे: इन्हें अपने 11 दस्तावेजों में से एक के साथ-साथ, अपने माता-पिता में से किसी एक के जन्म स्थान और जन्म तिथि का प्रमाण पत्र भी देना होगा।
- 2 दिसंबर, 2004 के बाद जन्मे: इस समूह के लिए, अपने दस्तावेजों के साथ-साथ, अपने दोनों माता-पिता के जन्म स्थान और जन्म तिथि का प्रमाण पत्र देना अनिवार्य है।
इसे ‘वोट बंदी’ क्यों कहा जा रहा है?
इस प्रक्रिया की तुलना 8 नवंबर, 2016 की ‘नोटबंदी’ से की जा रही है। जैसे नोटबंदी की घोषणा अचानक हुई थी, वैसे ही 24 जून को चुनाव आयोग ने अचानक से बिहार की मौजूदा वोटर लिस्ट को एक तरह से रद्द कर दिया। आज की तारीख में, तकनीकी रूप से बिहार में कोई वोटर लिस्ट नहीं है। इसे ‘इंटेंसिव रिवीज़न’ (गहन संशोधन) कहा जा रहा है, लेकिन आलोचक इसे ‘इनवेसिव रिवीज़न’ (आक्रामक संशोधन) कह रहे हैं, क्योंकि यह लोगों के अधिकारों में सीधी दखलंदाजी है।
सबसे बड़ी चिंता यह है कि बिहार के दूर-दराज के इलाकों में लोगों को अभी तक पता भी नहीं है कि आखिर चल क्या रहा है।
सबसे बड़ी चिंता: असम जैसे NRC का डर
इस पूरी प्रक्रिया में जो बात सबसे ज्यादा डरा रही है, वह है असम के एनआरसी के साथ इसकी समानता।
- पहली बार नागरिकता साबित करने का बोझ: यह भारतीय इतिहास में पहली बार हो रहा है कि एक मतदाता को अपना वोट डालने के अधिकार के लिए अपनी भारतीय नागरिकता साबित करनी पड़ रही है।
- दस्तावेजों की जटिलता: 11 दस्तावेजों की जो सूची दी गई है, वह बिहार के आम नागरिक के पास आसानी से उपलब्ध नहीं होगी।
- आधार और वोटर आईडी ‘बेकार’: बिहार के 90% लोगों के पास आधार कार्ड है, और कई लोगों के पास वोटर आईडी कार्ड और राशन कार्ड भी हैं। लेकिन चुनाव आयोग की इस प्रक्रिया में ये तीनों ही दस्तावेज किसी काम के नहीं हैं। चुनाव आयोग को जन्म प्रमाण पत्र चाहिए जो जन्म की तारीख और स्थान, दोनों को साबित करे।
- NRC का जिक्र: दिलचस्प बात यह है कि 11 दस्तावेजों की सूची में एनआरसी (National Register of Citizens) का भी जिक्र है, जबकि हम सब जानते हैं कि एनआरसी दस्तावेज सिर्फ असम तक ही सीमित है।
“क्या वोटर और आधार कार्ड होना भारतीय होने का सबूत नहीं?”
यह सवाल अब हर किसी के मन में है। चुनाव आयोग की नजर में, ये दस्तावेज अब पर्याप्त नहीं हैं। अगर आप 2 दिसंबर, 2004 के बाद पैदा हुए हैं, तो आपको अपने दस्तावेजों के साथ अपने माता-पिता के भी जन्म प्रमाण पत्र दिखाने होंगे। इसका मतलब है कि 2003 के बाद पैदा हुआ हर बिहारी वोटर एक ‘संदिग्ध भारतीय नागरिक’ है, जब तक कि वह इसे साबित न कर दे।
यह प्रक्रिया असम के ‘D’ वोटर्स (Doubtful Voters) की याद दिलाती है, जिनके नाम वोटर लिस्ट से हटा दिए गए थे। इनमें से कई ‘D’ वोटर आज डिटेंशन सेंटरों में बंद हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद असम में एनआरसी की प्रक्रिया को पूरा होने में छह साल लगे थे, और फिर भी असम सरकार ने उस लिस्ट को स्वीकार नहीं किया। अगर बिहार में भी ऐसी ही स्थिति पैदा होती है, तो इसका परिणाम क्या होगा, यह सोचकर भी डर लगता है।
40% वोटर क्यों हो सकते हैं बाहर?
इस प्रक्रिया की व्यावहारिकता पर भी गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं।
- समय की कमी: जुलाई से अगस्त के बीच, जब मानसून अपने चरम पर होता है, तब सिर्फ एक महीने के समय में बिहार के आठ करोड़ वोटरों तक पहुंचना लगभग नामुमकिन है। यह डिजाइन ही ऐसा बनाया गया है कि लोग इससे बाहर हो जाएं। एक अनुमान के मुताबिक, बिहार के 40% वोटर इस प्रक्रिया से बाहर हो सकते हैं।
- प्रवासी मजदूरों का क्या होगा? बिहार की आबादी का एक बड़ा हिस्सा (लगभग 20%) प्रवासी मजदूर हैं, जो काम या शिक्षा के लिए दूसरे राज्यों में रहते हैं। चुनाव आयोग उन्हें बिहार का वोटर न मानकर, राज्य से बाहर का वोटर मान रहा है। यह एक बहुत बड़ी आबादी को उनके मताधिकार से वंचित कर सकता है।
यह बिहार में वोट बंदी का मामला सिर्फ एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं है। यह लोकतंत्र, नागरिकता और आम आदमी के अधिकारों से जुड़ा एक बेहद संवेदनशील और गंभीर मुद्दा है। अगर असम का अनुभव कुछ सिखाता है, तो वह यह है कि इस तरह की प्रक्रियाओं का परिणाम अक्सर अव्यवस्था, असुरक्षा और मानवीय त्रासदी के रूप में सामने आता है। अब देखना यह है कि क्या बिहार भी उसी रास्ते पर आगे बढ़ रहा है।