अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की शतरंज पर भारत एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहाँ हर चाल बहुत सोच-समझकर चलनी पड़ रही है। एक तरफ उसका दशकों पुराना, समय की कसौटी पर खरा उतरा दोस्त रूस है, तो दूसरी तरफ दुनिया की सबसे बड़ी ताकत अमेरिका और पड़ोस में बैठा महत्वाकांक्षी चीन। यह संतुलन साधना अब और भी मुश्किल होने वाला है, क्योंकि अमेरिका में एक ऐसे बिल की तैयारी चल रही है जो भारत की विदेश नीति के लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी कर सकता है।
अमेरिकी सीनेटर लिंडसे ग्राहम एक ऐसा बिल लाने की तैयारी में हैं, जो रूस से सामान खरीदने वाले देशों पर 500% तक का भारी-भरकम टैक्स लगा सकता है। और इस बार, उनके साथ पूर्व राष्ट्रपति और मौजूदा उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प का भी समर्थन है। अगर यह बिल कानून बन गया, तो यह सिर्फ एक टैक्स नहीं होगा, बल्कि भारत-रूस संबंध पर एक सीधा प्रहार होगा।
इस जटिल होती दुनिया में, जहाँ दोस्त और दुश्मन की परिभाषाएं बदल रही हैं, भारत के लिए अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है। व्लादिमीर पुतिन का आगामी भारत दौरा इस मुद्दे को और हवा दे सकता है। भारत में भी इस विषय पर दो मत हैं – एक जो रूस के साथ दोस्ती को हर कीमत पर निभाने की वकालत करता है, और दूसरा जो बदलते समय के साथ यथार्थवादी और सतर्क रहने की सलाह देता है। आइए, इस पूरी स्थिति को गहराई से समझते हैं।
सिक्के का एक पहलू: रूस का साथ क्यों जरूरी है?
भारत-रूस संबंध के समर्थकों का मानना है कि यह रिश्ता सिर्फ व्यापार या हथियारों की खरीद-फरोख्त तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भावनाओं और विश्वास पर टिका है। वे अपने तर्कों के पक्ष में इतिहास के कई सुनहरे पन्ने पलटते हैं।
1. 1971 का वो युद्ध, जब रूस ढाल बनकर खड़ा था
यह भारतीय इतिहास का वो अध्याय है, जिसे कोई नहीं भूल सकता। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान जब अमेरिका ने पाकिस्तान के समर्थन में अपना सातवां बेड़ा बंगाल की खाड़ी की ओर भेज दिया था, तब सोवियत संघ (जो बाद में रूस बना) ही था जो भारत के पक्ष में एक चट्टान की तरह खड़ा हुआ। उसने न केवल अमेरिका को चेतावनी दी, बल्कि अपनी नौसेना को भेजकर अमेरिकी दबाव को बेअसर कर दिया। यह वो मदद थी जिसने युद्ध का रुख भारत के पक्ष में मोड़ने में अहम भूमिका निभाई।
2. हथियारों का भरोसेमंद आपूर्तिकर्ता
शीत युद्ध के दौर में जब पश्चिमी देश, खासकर अमेरिका, पाकिस्तान को आधुनिक हथियारों से लैस कर रहे थे, तब उन्होंने भारत को यही तकनीक देने से इनकार कर दिया था। उस मुश्किल दौर में रूस ने भारत को न केवल हथियार बेचे, बल्कि टेक्नोलॉजी ट्रांसफर भी की, जिससे भारत अपना रक्षा उद्योग खड़ा कर सका। आज भी भारतीय सेना के 60% से अधिक हथियार और उपकरण रूसी मूल के हैं, जिनकी मरम्मत और स्पेयर पार्ट्स के लिए भारत रूस पर बहुत अधिक निर्भर है।
3. UNSC में कश्मीर पर वीटो पावर का इस्तेमाल
रूस ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में हमेशा भारत का साथ दिया है। जब-जब पश्चिमी देशों ने जम्मू-कश्मीर के मुद्दे को उठाकर भारत को घेरने की कोशिश की, रूस ने अपने वीटो पावर का इस्तेमाल कर उन प्रस्तावों को खारिज कर दिया। यह एक ऐसा राजनयिक समर्थन है, जिसे भारत कभी नजरअंदाज नहीं कर सकता।
4. चीन का ‘काउंटर-बैलेंस’
इस धड़े का सबसे बड़ा डर यह है कि अगर भारत रूस से दूर होता है, तो रूस पूरी तरह से चीन की गोद में जाकर बैठ जाएगा। चीन पर पूरी तरह से निर्भर एक शक्तिशाली रूस, भारत के सामरिक हितों के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बन सकता है। वे मानते हैं कि रूस के साथ मजबूत रिश्ते बनाए रखकर भारत, रूस और चीन के बीच बढ़ती नजदीकियों को कुछ हद तक संतुलित कर सकता है।
सिक्के का दूसरा पहलू: रूस से दूरी बनाने की सलाह क्यों दी जा रही है?
वहीं, दूसरा धड़ा इन संबंधों को भावनात्मक चश्मे से देखने के बजाय रणनीतिक यथार्थवाद (Strategic Pragmatism) की वकालत करता है। उनका मानना है कि भारत को किसी भी तरह की नैतिक जिम्मेदारी से बंधकर अपने राष्ट्रीय हितों को दांव पर नहीं लगाना चाहिए।
1. रूस का आक्रामक रवैया और यूक्रेन युद्ध
यह धड़ा रूस-यूक्रेन युद्ध का उदाहरण देते हुए कहता है कि मॉस्को एक आक्रामक देश है। उसने अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करते हुए यूक्रेन की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता पर हमला किया है। ऐसे में, एक लोकतांत्रिक और शांतिप्रिय देश के रूप में भारत का एक ऐसे देश के साथ खड़ा होना नैतिक रूप से सही नहीं है।
2. रूस और चीन की बढ़ती रणनीतिक साझेदारी
यह शायद सबसे चिंताजनक पहलू है। रूस और चीन के बीच की दोस्ती अब सिर्फ एक सामान्य रिश्ता नहीं, बल्कि एक गहरी रणनीतिक साझेदारी बन चुकी है। ये दोनों देश मिलकर एक ऐसी विश्व व्यवस्था बनाना चाहते हैं जो पश्चिमी प्रभुत्व के खिलाफ हो। भारत के चीन के साथ सीमा पर तनाव को देखते हुए, रूस का चीन के प्रति बढ़ता झुकाव भारत के सुरक्षा हितों के लिए सीधा खतरा है। कई मौकों पर, चीन से जुड़े मामलों पर रूस का रुख अस्पष्ट और भारत के लिए निराशाजनक रहा है।
3. एक ढलती हुई ताकत के साथ खड़े होने का जोखिम
विश्लेषकों का मानना है कि रूस अब एक ‘ढलती हुई ताकत’ है। उसकी अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है और वह तकनीकी रूप से पिछड़ रहा है। उनका तर्क है कि भारत एक उभरती हुई महाशक्ति है और उसे अमेरिका, जापान और यूरोप जैसे उन्नत देशों के साथ अपनी साझेदारी बढ़ानी चाहिए, जो भारत की आर्थिक और तकनीकी क्षमता को बढ़ाने में ज्यादा मदद कर सकते हैं। एक कमजोर होते रूस पर निर्भर रहना भारत के भविष्य के लिए सही नहीं है।
तो आखिर भारत क्या करे? कूटनीति की इस रस्सी पर संतुलन
यह स्पष्ट है कि भारत एक बेहद जटिल स्थिति में है। वह न तो रूस को पूरी तरह से छोड़ सकता है और न ही अमेरिका को नाराज कर सकता है। ऐसे में, भारत को एक बहुत ही सधी हुई और संतुलित विदेश नीति पर चलना होगा। इसके लिए कुछ कदम उठाने जरूरी हैं:
- चीन के खिलाफ अमेरिका के साथ सहयोग: चीन भारत के लिए सबसे बड़ी और सीधी चुनौती है। इस चुनौती से निपटने के लिए भारत को अमेरिका और अन्य क्वाड देशों (जापान, ऑस्ट्रेलिया) के साथ अपना रणनीतिक सहयोग और गहरा करना होगा।
- रूस से रक्षा खरीद में विविधता: भारत को रूस से हथियारों की खरीद को पूरी तरह से बंद नहीं करना चाहिए, खासकर उन क्षेत्रों में जहाँ कोई विकल्प मौजूद नहीं है। लेकिन साथ ही, उसे अपनी रक्षा जरूरतों के लिए अमेरिका, फ्रांस, इजराइल जैसे अन्य देशों से खरीद बढ़ाकर विविधता लानी होगी ताकि किसी एक देश पर निर्भरता कम हो।
- रूस पर चीन के दबाव से सतर्क रहना: भारत को इस बात के लिए तैयार रहना होगा कि चीन रूस पर दबाव डालकर भारत के खिलाफ काम करवा सकता है। इसलिए, रूस के साथ हर बातचीत में भारत को अपने हितों को स्पष्ट रूप से सामने रखना होगा।
- रूस को भारत की मजबूरियां समझनी होंगी: रूस को भी यह समझना होगा कि आज का भारत 1971 का भारत नहीं है। भारत की अर्थव्यवस्था और उसकी वैश्विक महत्वाकांक्षाएं बढ़ चुकी हैं। उसे अपनी विदेश नीति में लचीलापन रखना होगा और वह अमेरिका के साथ अपने संबंधों को जोखिम में नहीं डाल सकता।
अंततः, भारत के लिए आगे का रास्ता ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ बनाए रखने का है। इसका मतलब है किसी भी गुट में शामिल हुए बिना, अपने राष्ट्रीय हितों के आधार पर हर देश के साथ संबंध बनाना। भारत को रूस को यह स्पष्ट संदेश देना होगा कि वह दोस्ती का सम्मान करता है, लेकिन यह दोस्ती भारत की सुरक्षा और संप्रभुता की कीमत पर नहीं हो सकती। साथ ही, अमेरिका को भी यह समझाना होगा कि रूस के साथ भारत के संबंध ऐतिहासिक और रक्षा जरूरतों पर आधारित हैं, और यह किसी भी तरह से अमेरिका के साथ उसकी साझेदारी के खिलाफ नहीं हैं।
यह एक कठिन डगर है, लेकिन भारत की परिपक्व कूटनीति ने पहले भी ऐसी चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना किया है। आने वाला समय ही बताएगा कि भारत इस त्रिकोणीय संघर्ष में अपने हितों की रक्षा कैसे कर पाता है।