कन्हैया कुमार

कन्हैया कुमार का ‘अपमान’ या RJD का दबाव? राहुल गांधी की गाड़ी से क्यों और किसने उतारा, जानें पूरी कहानी

बुधवार को पटना की सड़कें ‘बिहार बंद’ के नारों से गूंज रही थीं। इस विरोध प्रदर्शन की अगुआई करने के लिए कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी खुद पटना पहुंचे थे। एक खुली गाड़ी पर उनके साथ RJD नेता और बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव भी सवार थे। यह तस्वीर बिहार में विपक्षी एकता का एक बड़ा संदेश थी। लेकिन इसी गाड़ी के पास घटी एक और घटना ने बिहार की राजनीति में एक नई और बड़ी बहस छेड़ दी है।

कांग्रेस के फायरब्रांड नेता, CWC के स्थायी आमंत्रित सदस्य और NSUI के प्रभारी कन्हैया कुमार भी इस गाड़ी पर सवार होना चाहते थे, लेकिन सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें रोक दिया। इस घटना का वीडियो क्लिप सोशल मीडिया पर वायरल होते ही राजनीतिक गलियारों में तूफान आ गया। कई लोग इसे कन्हैया का सरेआम अपमान बता रहे हैं, तो कुछ इसके पीछे RJD के दबाव की साजिश देख रहे हैं। आखिर ऐसा क्या हुआ कि राहुल के करीबी माने जाने वाले कन्हैया को उनकी गाड़ी पर जगह नहीं मिली? क्या यह सिर्फ एक सुरक्षा चूक थी या इसके पीछे कोई गहरा राजनीतिक खेल है?

क्यों और किसने रोका कन्हैया को?

यह सवाल इसलिए भी बड़ा है क्योंकि कन्हैया कुमार कांग्रेस के एक प्रमुख चेहरे हैं। JNU छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष होने के नाते उनकी अपनी एक राष्ट्रीय पहचान है। जब वह राहुल गांधी की गाड़ी की ओर बढ़े, तो उन्हें रोक दिया गया। ठीक इसी तरह, पूर्णिया से लोकसभा सांसद पप्पू यादव को भी गाड़ी पर चढ़ने की इजाजत नहीं मिली।

इस घटना पर जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर ने सीधे-सीधे RJD पर निशाना साधा। उन्होंने कहा, “बिहार में कांग्रेस के जितने भी नेता हैं, उनमें कन्हैया कुमार सबसे प्रतिभाशाली नेताओं में से एक हैं। अगर कांग्रेस कन्हैया का इस्तेमाल नहीं कर पा रही है तो यह साबित होता है कि कांग्रेस RJD की पिछलग्गू पार्टी है। RJD का नेतृत्व कन्हैया कुमार जैसे काबिल नेताओं से डरता है। RJD नेतृत्व ने ही कन्हैया को दूर रखने के लिए कहा होगा।”

कांग्रेस का आधिकारिक पक्ष: ‘जो लिस्ट में नहीं थे, वो नहीं चढ़े’

इस पूरे विवाद पर जब बीबीसी हिंदी ने गाड़ी पर मौजूद कांग्रेस विधायक दल के नेता शकील अहमद खान से बात की, तो उनका जवाब बेहद सधा हुआ और स्पष्ट था।

  • ‘लिस्ट में नाम नहीं था’: शकील खान ने कहा, “क्या कन्हैया उस लिस्ट में शामिल थे, जिन्हें राहुल जी के साथ गाड़ी पर सवार होना था? अगर वह उस लिस्ट में शामिल नहीं थे तो उन्हें नहीं आना चाहिए था। हम पहले से ही सहमति से नाम तय करते हैं और जिन्हें शामिल होना होता है, उन्हें बता दिया जाता है। इस पर कोई विवाद ही नहीं होना चाहिए था।”
  • ‘RJD का दबाव नहीं’: जब उनसे RJD के दबाव के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने इसे सिरे से खारिज कर दिया। उन्होंने कहा, “कौन क्या कह रहा है, इसका कोई मतलब नहीं है। बिहार में RJD सबसे बड़ी पार्टी है, उसे किसी से कोई परेशानी क्यों होगी। हम गठबंधन में जरूर हैं लेकिन कांग्रेस अपना फैसला खुद करती है।”
  • पप्पू यादव पर सफाई: पप्पू यादव को लेकर उन्होंने कहा, “पप्पू यादव हमारे अलायंस पार्टनर नहीं हैं और न ही कांग्रेस में हैं। उन्हें किस आधार पर हम लोग आमंत्रित करते?”

गाड़ी पर मौजूद बिहार कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अखिलेश सिंह ने भी लगभग यही बात दोहराई, लेकिन उन्होंने गेंद RJD के पाले में डाल दी। उन्होंने कहा, “ये सवाल तो RJD से पूछना चाहिए क्योंकि उस कमिटी के अध्यक्ष तेजस्वी यादव ही हैं। कमिटी की बैठक में ही तय किया गया था कि कौन आएगा और कौन नहीं।”

क्या तेजस्वी यादव को कन्हैया कुमार से है ‘असुरक्षा’?

यह सवाल बिहार की राजनीति में लंबे समय से तैर रहा है। क्या RJD के युवराज और बिहार के सबसे बड़े युवा नेता तेजस्वी यादव, कन्हैया कुमार की लोकप्रियता और वाकपटुता से असहज महसूस करते हैं?

एक पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “देखिए, तेजस्वी यादव कन्हैया को लेकर बहुत सकारात्मक नहीं हैं। इसका कारण भी है। अगर तेजस्वी की सभा में कन्हैया रहेंगे तो महफिल लूट सकते हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि कन्हैया तेजस्वी की तुलना में एक बेहतर वक्ता हैं। कन्हैया पढ़े-लिखे हैं और बीजेपी को ज्यादा धारदार तरीके से जवाब देते हैं। मुझे नहीं लगता कि तेजस्वी किसी ऐसी रैली में हिस्सा लेंगे, जिसमें वक्ता कन्हैया भी हों।”

यह एक बड़ा आरोप है, जो दिखाता है कि गठबंधन के भीतर भी नेताओं के बीच व्यक्तिगत समीकरण कितने जटिल हो सकते हैं। हालांकि, अखिलेश सिंह जैसे नेता इस बात से इनकार करते हैं, लेकिन राजनीतिक विश्लेषक इसे एक अहम फैक्टर मानते हैं।

क्या कन्हैया को बिहार कांग्रेस ने भी नहीं स्वीकारा?

यह सिर्फ RJD का मामला नहीं है। ऐसा लगता है कि बिहार की कांग्रेस यूनिट में भी Kanhaiya Kumar को लेकर एक तरह की असहजता है। पिछले कई दशकों से कांग्रेस बिहार में नेतृत्व संकट से जूझ रही है और RJD की जूनियर पार्टनर बनकर रह गई है। कन्हैया जैसे तेज-तर्रार और राष्ट्रीय पहचान वाले नेता का आगमन प्रदेश के स्थापित नेताओं के लिए एक चुनौती जैसा हो सकता है।

टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस के प्रोफेसर और राजनीतिक विश्लेषक पुष्पेंद्र कहते हैं, “कन्हैया को तय करना होगा कि उन्हें कांग्रेस में सुप्रिया श्रीनेत, पवन खेड़ा और जयराम रमेश बनना है कि रेवंत रेड्डी। अगर मास लीडर बनना है तो उन्हें जमीन पर संघर्ष करना होगा, न कि राहुल गांधी से करीबी होने का औरा लेकर अहंकार में रहना होगा।”

उनका मानना है कि कन्हैया का तेवर और उनकी कार्यशैली अभी भी बिहार की जमीनी राजनीति से मेल नहीं खाती। वह कहते हैं, “कन्हैया जातीय पहचान को हवा नहीं देते हैं लेकिन उन्हें सवर्णों वाली आभिजात्यता से बाहर आना होगा।”

कन्हैया का राजनीतिक सफर: लोकप्रियता और चुनावी हार

Kanhaiya Kumar 2016 में JNU में दिए एक भाषण के बाद रातों-रात स्टार बन गए थे। उनकी लोकप्रियता चरम पर थी। 2019 में वह CPI के टिकट पर अपने गृह जिले बेगूसराय से लड़े, लेकिन बीजेपी के गिरिराज सिंह से बड़े अंतर से हार गए।

सितंबर 2021 में वह कांग्रेस में शामिल हो गए। 2024 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने उन्हें उत्तर-पूर्वी दिल्ली से उम्मीदवार बनाया, लेकिन यहां भी उन्हें बीजेपी के मनोज तिवारी के हाथों हार का सामना करना पड़ा। लगातार दो बड़ी चुनावी हार के बाद, उन पर खुद को एक ‘मास लीडर’ के रूप में साबित करने का दबाव बढ़ गया है।

यह घटना दिखाती है कि कन्हैया कुमार कांग्रेस में भले ही एक महत्वपूर्ण पद पर हों, लेकिन जब बात बिहार की जमीनी और गठबंधन की राजनीति की आती है, तो उनके लिए राहें अभी भी आसान नहीं हैं। उन्हें न केवल RJD के साथ अपने समीकरण सुधारने होंगे, बल्कि बिहार कांग्रेस के भीतर भी अपनी स्वीकार्यता बढ़ानी होगी। यह एक अकेली घटना हो सकती है, लेकिन इसने बिहार की विपक्षी राजनीति की अंदरूनी दरारों को एक बार फिर उजागर कर दिया है।

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