कोल्हापुरी चप्पलें

कोल्हापुरी चप्पलें: दुनिया में छा गईं लेकिन कारीगरों को क्यों नहीं मिला सम्मान?

मिलान से उठी एक बहस: भारत की विरासत और वैश्विक फैशन

23 जून 2025 को मिलान फैशन वीक के दौरान प्राडा ने अपने नए कलेक्शन में कोल्हापुरी चप्पलें जैसी डिज़ाइनें पेश कीं। भारतीय सोशल मीडिया पर बहस छिड़ गई, क्योंकि शो में कोल्हापुरी चप्पलों के मूल डिज़ाइन या भारतीय मूल का कोई श्रेय नहीं दिया गया।

फिर क्या था, कोल्हापुर से लेकर दिल्ली तक कई लोग इस “मौन अप्रोप्रियेशन” पर नाराज़ हो गए। क्या सिर्फ डिज़ाइन का इस्तेमाल कर लेना सही है, अगर उसके मूल निर्माता और स्थान को श्रेय न दिया जाए?


कोल्हापुर की आवाज़: श्रेय क्यों नहीं?

कोल्हापुर के सुभाष नगर में रहने वाली चमड़े की कारीगर प्रभा सातपुते कहती हैं, “ये चप्पलें हमारी रग-रग से जुड़ी हैं। इन्हें बनाना आसान नहीं, ये मेहनत और पीढ़ियों की कला से तैयार होती हैं।” उनके मुताबिक, जब अंतरराष्ट्रीय मंच पर इन चप्पलों का प्रदर्शन होता है, तब कोल्हापुर का नाम आना ही चाहिए।

यहां के कई लोगों को लगता है कि विदेशों में दिखाए जाने के बाद ही हमारे पारंपरिक उत्पादों को पहचान मिलती है, जबकि असली मेहनत और कला तो यहीं होती है।


सात सौ साल की विरासत: सिर्फ फुटवियर नहीं, पहचान हैं

कोल्हापुरी चप्पलें केवल पहनने की चीज नहीं हैं, वे महाराष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत का जीवंत उदाहरण हैं। इन्हें स्थानीय लोग “पायताण” कहते हैं। ये विशेष प्रकार की चमड़े की चप्पलें होती हैं जो गर्मी, बारिश और कठोर मौसम में भी लंबे समय तक चलती हैं।

इनका इतिहास 13वीं शताब्दी तक जाता है। पहले ये अलग-अलग गांवों के नाम पर पहचानी जाती थीं, जैसे कापशी, अथनी आदि। लेकिन शाहू महाराज के शासनकाल में इन्हें कोल्हापुर से जोड़ा गया और एक नई पहचान मिली।

शाहू महाराज ने स्थानीय कारीगरों को ज़मीन दी, संसाधन उपलब्ध कराए और इस काम को सामाजिक सम्मान दिलाया।


कैसे बनती हैं असली कोल्हापुरी चप्पलें?

इन चप्पलों को बनाने की प्रक्रिया पूरी तरह हस्तनिर्मित और पारंपरिक है:

  • चमड़ा तैयार करना: भैंस की खाल को बबूल की छाल और चूने से धोया जाता है।
  • आकार देना: तैयार चमड़े को मनचाहे आकार में काटा जाता है।
  • सिलाई: हाथ से सूती या नायलॉन धागों से बुनाई की जाती है।
  • सजावट: कुछ डिज़ाइनों में मोती, लटकन, पारंपरिक कढ़ाई भी होती है।
  • फिनिशिंग: अंत में इन पर तेल लगाया जाता है ताकि चमक और लचीलापन बना रहे।

हालांकि अब कुछ प्रक्रिया मशीनों से भी की जाती हैं, पर मूल काम आज भी हाथों से होता है।


‘टो रिंग सैंडल’ या कोल्हापुरी?

मिलान फैशन शो में इन चप्पलों को ‘टो रिंग सैंडल’ कहा गया, जो कई भारतीयों को नागवार गुज़रा। सोशल मीडिया पर लोग कहने लगे – “अगर ये कोल्हापुरी जैसी हैं, तो उन्हें उसी नाम से क्यों नहीं पुकारा गया?”

महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स के अध्यक्ष ललित गांधी ने प्राडा को पत्र लिखकर नाराज़गी जताई। जवाब में प्राडा ने कहा कि ये डिज़ाइन भारतीय चप्पलों से प्रेरित हैं और वे भारतीय कारीगरों से संवाद को तैयार हैं।


सांस्कृतिक अप्रोप्रियेशन बनाम प्रेरणा

यह कोई पहली बार नहीं है। फैशन की दुनिया में भारतीय वस्त्र, आभूषण और डिज़ाइनों को विदेशी ब्रांडों द्वारा बिना श्रेय लिए इस्तेमाल करना आम बात होती जा रही है।

  • 2024 में आलिया भट्ट के आउटफिट को “साड़ी से प्रेरित” बताया गया, लेकिन डिजाइनर गुच्ची ने उसे गाउन कहा।
  • 2018 में गुच्ची ने सिख पगड़ी को फैशन एलिमेंट के तौर पर दिखाया, जिस पर विवाद हुआ।
  • टिकटॉक पर स्कार्फ़ को “स्कैंडिनेवियन” कहा गया, जबकि वह साफ़ तौर पर दुपट्टा था।

ऐसे उदाहरण कल्चरल अप्रोप्रियेशन की ओर इशारा करते हैं – जब किसी संस्कृति के तत्वों को बिना अनुमति या श्रेय के अपनाया जाए।


श्रेय का अधिकार: क्या कारीगरों को मिलेगा सम्मान?

प्राडा विवाद से कोल्हापुरी चप्पलों की मांग तो बढ़ सकती है, लेकिन असली सवाल है – क्या इससे कारीगरों का जीवन बदलेगा?

प्रभा सातपुते जैसी महिलाएं घर से ही काम करती हैं, लेकिन उन्हें सरकारी योजनाओं या बैंक से कोई सहायता नहीं मिलती। जब वे लोन के लिए आवेदन करती हैं, तो उनसे बड़ी मशीनें और इन्फ्रास्ट्रक्चर की अपेक्षा की जाती है – जो उनके पास नहीं है।

वो कहती हैं, “अगर हमें सिर्फ 2-3 लाख का कर्ज़ भी मिल जाए, तो हम अपने व्यवसाय को आगे ले जा सकते हैं। लेकिन बिना संसाधनों के हम क्या कर सकते हैं?”


नई पीढ़ी इस पेशे से दूर क्यों?

एक और चिंता यह है कि आज की युवा पीढ़ी इस परंपरा से जुड़ना नहीं चाहती। समाज में चमड़े के काम को नीचा समझा जाता है, जिससे इसे अपनाना कठिन होता जा रहा है।

भूषण कांबले, जो कोल्हापुरी चप्पलें बेचते हैं, कहते हैं – “यह व्यवसाय लाभदायक है, लेकिन सामाजिक सम्मान की कमी इस पेशे को कमजोर कर रही है।”


निष्कर्ष: क्या बदलेगा कुछ?

कोल्हापुरी चप्पलें एक बार फिर वैश्विक मंच पर आई हैं। यह समय है कि हम न केवल इनकी डिज़ाइन और गुणवत्ता की सराहना करें, बल्कि उनके निर्माताओं और उनकी विरासत को भी समान रूप से सम्मान दें।

अगर वैश्विक ब्रांड इन चप्पलों को दिखाते हैं, तो ज़रूरी है कि वे कोल्हापुर का नाम, वहां के कारीगरों का श्रेय और उनकी मेहनत का सम्मान भी उतनी ही प्रमुखता से दें।

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